18वीं लोकसभा के गठन के साथ ही एक बार फिर सेंगोल चर्चा में है। संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए संसद के द्वार पर पहुंचते ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का सेंगोल से स्वागत किया गया। सेंगोल राजदंड, जो भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का प्रतीक है, भारतीय संसद में कई बार राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है। यह राजदंड सत्ता, शासक और शासन की स्थायित्वता का प्रतीक है। भारत में ऐतिहासिक रूप से राजदंड का महत्व रहा है, लेकिन आधुनिक राजनीति में इसके प्रयोग और संदर्भ ने इसे नई प्रासंगिकता दी है। सेंगोल का मूल तमिल शब्द 'सेम्मई' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'धार्मिक अधिकार' या 'न्यायिक शक्ति'। ऐतिहासिक रूप से, यह राजदंड तमिलनाडु के चोल वंश के राजाओं द्वारा सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक था। जब एक नया राजा सत्ता ग्रहण करता था, तो उसे यह राजदंड सौंपा जाता था, जो कि न्याय और धर्म के पालन का प्रतीक होता था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, सेंगोल को महात्मा गांधी ने सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक चुना था। 1947 में, जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तब अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने यह राजदंड पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। यह सत्ता के शांतिपूर्ण और न्यायसंगत हस्तांतरण का प्रतीक बना।इसका इतिहास चोल साम्राज्य से जुड़ा है। सेंगोल जिसे हस्तांतरित किया जाता है, उससे न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है। 1947 में धार्मिक मठ - अधीनम के प्रतिनिधि ने सेंगोल भारत गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। बाद में इसे इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया था। समय के साथ, भारतीय संसद में सेंगोल राजदंड की भूमिका बदलती गई। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने तरीकों से इसे भुनाने का प्रयास किया। कई बार यह राजदंड केंद्र सरकार और विपक्ष के बीच बहस का मुद्दा भी बना है। कुछ दल इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक मानते हैं, जबकि अन्य इसे महज एक औपचारिकता मानते हैं।
हाल के वर्षों में, केंद्र सरकार ने सेंगोल राजदंड को भारतीय लोकतंत्र और न्याय प्रणाली का प्रतीक मानते हुए इसके महत्व को पुनर्स्थापित करने की कोशिश की है। 2022 में, भारतीय संसद ने इस राजदंड को संसद भवन के प्रमुख स्थल पर स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर विपक्ष ने आलोचना करते हुए इसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था। सेंगोल राजदंड के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच तीव्र मतभेद रहे हैं। विवाद तब शुरू हुवा जा समाजवादी पार्टी के संसद आर के चौधरी ने इसे लोकतांत्रिक देश मे राजशाही का प्रतीक बताते हुए इसे संसद से हटाने की मांग की। और सभापति को पत्र लिखकर कहा कि सेंगोल हटाकर उसकी जगह भारतीय संविधान की विशालकाय प्रतिमा स्थापित की जाए। जब की सत्तारूढ़ दल इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं का सम्मान बताते हुए इसका समर्थन करता है, जबकि विपक्ष इसे भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत मानता है। विपक्ष का मानना है कि सत्ता का हस्तांतरण संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं के माध्यम से होना चाहिए, न कि धार्मिक या सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से।
सेंगोल राजदंड भारतीय संसद में राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। यह सत्ता, न्याय और धर्म के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, लेकिन आधुनिक राजनीति में इसके प्रयोग ने इसे विवादित बना दिया है। भारतीय राजनीति में इस राजदंड की भूमिका और महत्व पर मतभेद बने रहेंगे, लेकिन यह निश्चित है कि सेंगोल राजदंड भारतीय संस्कृति और इतिहास का एक अमूल्य हिस्सा है। भविष्य में, इसे सही संदर्भ में समझना और इसका सम्मान करना महत्वपूर्ण होगा, ताकि यह देश की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संरक्षित रह सके।
प्रणव सातोकर, नागपूर