देश के 80 करोड़ से अधिक गरीबों को 5 किलो मुफ्त अनाज अब आगामी 5 सालों तक भी मिलता रहेगा। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने छत्तीसगढ़ चुनाव प्रचार के दौरान इसकी घोषणा की है। यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत है और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का भी हिस्सा है। यह योजना कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान मात्र तीन माह के लिए लागू की गई थी, लेकिन लगातार छठी बार इसकी समय-सीमा बढ़ाई गई है। संयोग है अथवा राजनीति है कि जब भी मुफ्त अनाज बांटने की अवधि बढ़ाई गई, तब कोई न कोई चुनाव सामने होता था। प्रधानमंत्री और भाजपा ने इसी योजना के जरिए एक ऐसा लाभार्थी वर्ग तैयार कर लिया है, जो उनके पक्ष में ही वोट डालता है। दूसरी योजनाओं की भी लाभार्थी-भूमिका पुख्ता की जा रही है।
दरअसल इसी साल जनवरी, 2023 में मुफ्त अनाज की अवधि बढ़ाई गई, क्योंकि मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव थे। दिसंबर, 2021 में अवधि बढ़ाई गई, क्योंकि फरवरी, 2022 से पंजाब, उप्र, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने थे। पंजाब छोड़ कर भाजपा शेष सभी राज्यों में विजयी हुई और सरकारें बनाईं। नवम्बर, 2020 में मुफ्त अनाज बांटने की अवधि जून, 2021 तक की गई थी, क्योंकि मार्च-अप्रैल, 2021 में बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी में चुनाव थे। भाजपा बंगाल, केरल, तमिलनाडु सरीखे बड़े राज्यों में पराजित हुई।
हर चुनाव से पहले इस योजना की घोषणा करना क्या ‘आचार संहिता का उल्लंघन’ नहीं है? चूंकि योजना 2020 से निरंतर जारी है, लिहाजा प्रधानमंत्री किसी भी मौके पर समय-सीमा में बढ़ोतरी की घोषणा करने को स्वतंत्र हैं? बेशक यह योजना ‘राष्ट्रीय’ है, लेकिन चुनाव वाले क्षेत्रों में औसत मतदाता एक हद तक प्रभावित तो होते हैं। बहरहाल इन सवालों पर तो चुनाव आयोग मंथन करेगा और जरूरी महसूस हुआ, तो देश को भी बताएगा। दरअसल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में अनाज मुहैया कराने के कई प्रावधान हैं।
मकसद है कि कोई भी नागरिक भूखा न सोने पाए। इसका भी एक ईमानदार सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। गरीबी-रेखा के नीचे वाले वर्ग को हर महीने 5 किलो अनाज प्रति पारिवारिक सदस्य सबसिडी दरों पर आवंटित किया जाता है। उसके अतिरिक्त यह 5 किलो मुफ्त अनाज माहवार मुहैया कराया जाता है। इसमें गेहूं, चावल, एक किलो दाल या चना, नमक आदि होता है। इस खाद्यान्न पर भी भारत सरकार लाखों करोड़ रुपए की सबसिडी खर्च कर चुकी है। सरकार के शीर्ष प्रशासनिक अधिकारी प्रधानमंत्री मोदी को अर्थव्यवस्था के प्रति आगाह कर चुके हैं। उसके बावजूद इस बार पूरे 5 साल के लिए मुफ्त अनाज की अवधि बढ़ा दी गई है। इससे प्रति वर्ष 2 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त सबसिडी का बोझ बढ़ेगा। प्रधानमंत्री गरीबों के कल्याण और हर पेट को खाने की तुलना में सबसिडी को क्षुद्र मानते हैं। यह खर्च आगामी वित्त वर्ष के बजट में जोड़ा जाएगा।
यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर विपक्ष और बौद्धिक वर्ग सवाल तो करते हैं, लेकिन जमकर विरोध नहीं कर पाते, क्योंकि यह 80 करोड़ से अधिक नागरिकों की भूख और खाद्यान्न से जुड़ा मुद्दा है। इससे गरीबी-उन्मूलन के दावों के विरोधाभास भी उभर कर सामने आते हैं। प्रधानमंत्री दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार ने 13.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को गरीबी की परिधि से बाहर निकाला है, जबकि आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) अपना आकलन दे चुके हैं कि आज भी करीब 23.5 करोड़ नागरिक देश में ऐसे हैं, जो रोजाना 375 रुपए कमाने में भी असमर्थ हैं। दरअसल जो महिलाएं और पुरुष मुफ्त अनाज लेने जाते हैं, वे सभी बहुत गरीब हैं, ऐसा नहीं है। महिलाएं घरों और फैक्टरियों में काम करती हैं। पुरुष कोई न कोई काम जरूर कर रहा है। उनके नाबालिग बच्चे भी स्थानीय दुकानों और ढाबों पर दिहाड़ी करते हैं। देखा जाता है मुफ्त का अनाज कही न कही जनता पर काम ना करने आलस का भाव निर्माण करता है देश की बढ़ती जनसख्या कामगार और कुशल हो ताकि भारत देश भविष्य पर विकसित बने इसलिए मोदी सरकार को प्राथमिकता के आधार पर गरीबी पर व्यापक सर्वेक्षण कराना चाहिए।